छिन छिन छिजै देह पलै पल जाय है।
घड़ी पहर और दिवस रैनि बिहाय है।
पखवाड़ा महीन सम्मत घटतु है।
हरि हां मोहन तृष्णा ताप भी दिन दिन बढतु है।
बालपन जाय बीत तरूण मन होय रै।
तृष्णा की उत्पत्ति तभी होय रै।
तरुण से होवै वृद्ध तबै अधकीं बढै।
हरि हां मोहन तन होय क्षीण तृष्णा जोबन चढै॥