औधू सुरही सकति संभाली।

दह दिस बिघन बाघ बसुधा मैं, मीच मया करि टाली॥

नौखंड माहिं फिरै चरनोही, सात समुंद जलयाना।

तब लग गाय गरज नहिं सारै, समझी ग्वाल सयाना॥

स्वारथ सांझ समागम होता, आधीन उदरि अस्थाना।

व्यापे बच्छ सु पांच पचीसौ, राग दोष सब ठाना॥

लोह की लाठी हेत हांथि लै, चेतनि पगि रखवारी।

ऐसे लंबा त्रासि आसि करि, कारिज सारै भारी॥

अगम उछेरी उलटि अकासहिं, नांव नाज सु चराई।

बाइक बच्छ छांह सुनि सीतल, संतोष सरोवर पाई॥

कामधेनु व्है काम व्यापै, दूध दरस निज थाना।

जन रज्जब है धन्य धेनु सो, पीवे अमृत पाना॥

स्रोत
  • पोथी : रज्जब बानी ,
  • सिरजक : रज्जब जी ,
  • संपादक : ब्रजलाल वर्मा ,
  • प्रकाशक : उपमा प्रकाशन, कानपुर ,
  • संस्करण : प्रथम