जन का जीव की रे भाई रीति रहस मैं, अधम गुदारत हासै।
पसरि पसरि जब पड़ि पड़ि ऊठै, तब मन रहै तमासै॥
मूरिख मैला मन ऊपरली, पापी बैसत पासै।
सेवा सुमिरन संत करै जब, ऊठि अलग जाइ न्हसै॥
हरि की कथा अवसि जे चालै, अति ऊंघै खर खासै।
जदपि जागि सुणैं जे श्रवणां, अंतरि औगुण भ्यासै॥
ध्रू प्रहिलाद कबीर नामदेव, इहिं पथि चल्या उजासै।
तूं हरदास परम तत परहरि, भूलि न दूजी भासै॥