मैं परणंती परखियौ सूरति पाक सनाह।

धड़ि लड़िसी गुड़िसी गयँद नीठि पड़ेसी नाह॥

नाह नीठि पड़िसी खेत माँझी निवड़।

गयँद पड़िसी गहर करड़ घड़ भड़ गहड़॥

विढंतौ जसौ विसकन्या बाखाणियौ।

परणती कंथ चौ मुरड़ पहचाणियौ॥

(जसाजी की स्त्री कहती है) विवाह के समय पति के कवच धारण किये हुए सुंदर स्वरूप को देखकर ही मैंने समझ लिया था कि उसका सिर कट जाने पर भी धड़ लड़ता रहेगा और उसके प्रहारों से हाथी तक लुढ़केंगे पर वह मुश्किल से गिरेगा। बड़े हाथी गिरेंगे, विकट सेना के प्रबल वीर गिरेंगे परन्तु अद्वितीय वीर मेरा पति मुश्किल से धराशायी होगा। (पत्नी के इस विश्वास के अनुसार) रायसिंह की सेना-रूपी विष कामिनी ने भी युद्ध-व्यस्त जसाजी का बखान किया(जसाजी की स्त्री कहने लगी) मैनें तो विवाह के समय ही पति के इस आत्मगौरव की पहचान कर ली थी।

स्रोत
  • पोथी : हालाँ झालाँ रा कुंडलिया ,
  • सिरजक : ईसरदास ,
  • संपादक : मोतीलाल मेनारिया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय
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