ल्यावै लोड़ि पराइयाँ नहँ दै आपणियाँह।

सखी अमीणा कंथ री उरसाँ झूँपड़ियाँह॥

लोड़ि धर वार वर पराई ल्यावणा।

आपणी दै भड़ जिकै अध्रियामणा॥

वरण कजि अपछरा वाट जोवै खड़ी।

ज्याँ भडाँ तणी झिल्लै उरस झूँपड़ी॥

हे सखी! मेरे पति की झोंपड़ी आकाश में है। वे दूसरों की धरती को छीन कर लाते हैं और अपनी नहीं देते हैं। उनसे विवाह करने के लिए अप्सरा खड़ी प्रतीक्षा करती रहती है। ऐसे बहादुरों की झोंपड़ी आकाश में शोभित होती है।

स्रोत
  • पोथी : हालाँ झालाँ रा कुंडलिया ,
  • सिरजक : ईसरदास ,
  • संपादक : मोतीलाल मेनारिया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय
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