ग्रीझणि काँइ उतावळि हय पलाणताँ धीर।

काय बैसाणूँ सत्रा सिर काय आपणै सरीर॥

आपणै गात काय आरि कमळ ऊपराँ।

चापड़ै रातड़ामुखाँ आमिखचराँ॥

धीर हय पलाणत कहै साम्हौ धणी।

गयण मग आकुळी फिरै किम ग्रीझणी॥

हे गिद्धनी! उतावली क्यों है? घोड़ा कस रहा हूँ। धीरज रख। हे रक्तमुखी, माँस-भक्षिणी! युद्ध में या तो मैं तुझे शत्रु के सर पर बैठाऊंगा या अपने शरीर पर अर्थात् या तो मैं शत्रु को मारूँगा जिससे तू उसके सिर प् बैठकर उसका माँस खा सकेगी। या लड़ता हुआ खुद मारा जाऊंगा(रणसे भागूँगा नही) जिससे मेरा माँस भक्षण कर सकेगी। तू भूखी नहीं रहेगी। सामने घोड़ा कसते हुए स्वामी कहते है कि हे गिद्धनी! आकाश मार्ग में बैचेन क्यों फिर रही है।

स्रोत
  • पोथी : हालाँ झालाँ रा कुंडलिया ,
  • सिरजक : ईसरदास ,
  • संपादक : मोतीलाल मेनारिया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय
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