साह तणा खूनी सबळ, आय बचै इण ठोड़।

सांतू अकलीम में, चावो गढ़ चीतोड़॥

दिन दुलहां माणीगरां, इण गढ़ रा धणियांह।

आणी सींगळ दीप सूं, पेखे पदमणियांह॥

आगै इण गढ़ वासतै, समर हुआ जग साख।

सात लाख हिंदू मुवा, असुर अठारे लाख॥

जठै प्रतपियौ प्रगट जो, हर अवतार हमीर।

नीसरतौ जूड़ा महीं, नित निरझर नद नीर॥

सिर मांडव गुजरात सिर, दल सझ कीधी दौड़।

उण सांगा रो बैसणो, चंगों गढ़ चीतोड़॥

सब दिन गो मुख कुंडसिर, पाणी सूं भरपूर।

अन भुरजालां भुरजसा, गढ़ चीतोड़ कंगूर॥

नीसरणी लागै नहीं, लागै नहीं सुरंग।

लड़ नहिं लीधो जाय ओ, दीधो जाय दुरंग॥

पर गढ़ लेणा रोप पग, अरि सिर देणा तोड़।

धरा हूंत नहिं धापणो, खूंदालमां खोड़॥

दल बल सूं घेरो दियो, प्रबल हुमाऊं पूत।

गैलोतां चितोड़ गढ़, मिल कीधो मजबूत॥

अमिट भड़ां बल अंग में, कोठारां सामान।

सामध्रमी ठाकुर सको, दिए रंग दुनियान॥

दिल्ली के शासकों के शत्रु बने सभी सामंतों, राजा-महाराजा आदि ने गढ़ों के सिरमौर चितौड़गढ़ में शरण लेकर अपने प्राण बचाए। इसी चितौड़गढ़ की महिमा सातों विलायतों में अर्थात् सर्वत्र व्याप्त है।1

चितौड़गढ़ के पराक्रमी शासकों ने अपने पुरुषार्थ के बल पर सिंहल द्वीप की पद्मिनी के लक्षणों वाली नारी-शिरोमणियों से ब्याह रचाकर अपने अन्तः पुर की शोभा बढाई।2

पूर्व में भी इस दुर्ग पर अधिकार करने के लिए दुश्मनों के अनेक बार आक्रमण हुए, जिसके परिणामस्वरूप विश्व-विख्यात युद्ध भी हुए। इस दुर्ग की प्रतिष्ठा की रक्षा हेतु सात लाख हिंदू-वीरों ने अठारह लाख असुरों (आक्रमणकारियों) का रणक्षेत्र में संहार करके वीरगति का वरण किया।3

इस दुर्ग पर परम प्रतापी महाराणा हमीर सिंह ने राज्य किया, जो कि महादेव-जिनकी जटाओं में से सदानीरा सुरसरि (गंगा नदी) प्रवाहित हुई है के अवतार माने गये हैं।4

इस चितौड़गढ़ के विश्व-विख्यात वीर शासक महाराणा सांगा ने अपनी विशाल सेना लेकर मांडू तथा गुजरात पर चढ़ाई करके, वहाँ के शासकों को अपने वश में किया।5

गोमुख नामक निर्झर से प्रवहमान जलधारा के प्रताप से चितौड़गढ़ दुर्ग के मध्य स्थित जलाशय सदा हिलोरें खाता रहता है। राजस्थान प्रदेश के अन्य सभी शिखरबंध दुर्गों में चितौड़गढ़ सर्वप्रमुख दुर्ग सिद्ध हुआ है।6

इस दुर्ग-शिरोमणि चितौड़गढ़ के ऊपर तो सीढ़ी से चढ़ना संभव है और ही इसमें प्रवेश करने के लिए कोई सुरंग ही सहायक सिद्ध हो सकती है। संघर्ष के सहारे इसको प्राप्त करना तो किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। इसका आधिपत्य तो स्वेच्छापूर्वक ही हस्तांतरित हो सकता है।7

रणक्षेत्र में डटकर शत्रुओं का संहार करके अन्य किलों पर अधिकार करने में सक्षम तथा राज्य विस्तार की लालसा से कभी भी तृप्त नहीं होने वाले सत्तालोलुप दिल्ली के शासकों के दिल में तो इस दुर्ग का गौरवशाली अस्तित्व सर्वदा अखरता ही रहा।8

प्रबल प्रतापी एवं हुमायुँ के सुपुत्र बादशाह अकबर ने अपनी चतुरंगिनी सेना के साथ चितौड़ दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। अकबर बादशाह के आक्रमण का मुँह तोड़ जवाब देने के लिए मेवाड़ के गुहिलवंशीय बलिदानी क्षत्रियों ने भी किले के अन्दर मजबूत मोर्चाबंदी कर ली।9

अतुल बलशाली सिसोदिया सैनिकों ने अदम्य उत्साह के साथ भंडार-गृहों में आवश्यक सामग्री का समुचित संग्रह करके चितौड़गढ़ की आन-बान एवं शान की रक्षा हेतु मर मिटने का संकल्प लिया, जिनकी स्वामीभक्ति की गौरव-गाथाएँ आज भी संसार में सर्वत्र सुनाई देती हैं।10

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
जुड़्योड़ा विसै