माहव सूम मिळाव मत, अैड़ा घरां हिसाब।

के हल्लर फल्लर करै, पावै कल्लर राब॥

ऊख गिरी धर ऊपरै, यळ खांडांमय आब।

तूम्बां मीठम होय तो, सूबां होय सबाब॥

अदता टाणां ऊपरै, नाणां खरचै नांहि।

हाथ घसै निरधन हुवां, मांखी ज्यों जग मांहि॥

सावण मास सुहावणो, लागै झड़ जळ लूंम

उण दिन ही आसव तणी, सोरभ नह ले सूंम॥

हुवै मुवां बिन मुकत नह, भै बिन हुवै प्रीत।

सुधा पियां बिन अमरपद, व्है दियां बिन क्रीत॥

करूं अरज कमळासनां, त्यागां बार तुज्ज।

जिण दिन जग छांडस्यां, उण दिन तोसूं कज्ज॥

कवियण रसण क्रपाण रो, साजौ हुवै घाव।

बीह इसी बलाय रो, सूंमां कठण सुभाव॥

रीझे विषधर राग सूं, किया जिणरै कान।

कान किया क्यों क्रपण रै, सुणै क्यों ही ज्ञान॥

जवन मृतक तन क्रपण धन, अन कण कीड़ी आंण।

धरती में ऊंडो धरै, जांण भलो निज जांण॥

लुळ डाळी तर लोभ रै, झूलै रहिया झूल।

देणो दांन कबूल नह, क्रपणां मरण कबूल॥

कवि बांकीदास भगवान् श्री कृष्ण से यही प्रार्थना करते है- हे माधव! आप कभी किसी भले आदमी का कृपण मनुष्य से पाला मत पटकना क्योंकि कृपण व्यक्ति अतिथि को देखते ही कतरा जाता है। वह बनती कोशिश टोलमटोल से ही काम निकालना चाहेगा। उसके उपरांत भी यदि अतिथि को भोजन कराना अनिवार्य ही अनुभव हुआ तो वह अत्यंत रूखे मन से जौ, बाजरा अथवा गेहूँ के आटे को छाछ में घोलकर बनाया जाने वाला बिल्कुल पतला पेय पदार्थ-राब पिलाकर अतिथि से छुटकारा पायेगा॥1

कवि बांकीदास कहते है कि जिस प्रकार गन्ने के रस को पानी में मिलाकर सिंचाई करने पर भी तसतूंबे की बेल का फल कभी भी मीठा नही हो सकता, उसी प्रकार चाहे याचक कितनी ही प्रशंसा कर ले, परन्तु कृपण व्यक्ति कभी भी दान-पुण्य जैसे सत्कर्म में प्रवृत हो ही नहीं सकता है॥2

कवि बांकीदास के मतानुसार कंजूस व्यक्ति विवाहादि जैसे आनंदमय उत्सवों पर भी एक पैसा तक खर्च नहीं करता है। संचय किया हुआ द्रव्य समाप्त हो जाने पर वह उसी प्रकार हाथ मलता रह जाता है जैसे संचय किया हुआ शहद लुट जाने पर मधुमक्खी दुःखी होकर आकाश में व्यर्थ ही उड़ती फिरती है॥3

सावन के महीने में मेघ खूब जल बरसाकर सभी के ह्रदय में मनोनुकूल मादक-द्रव्य सेवन की इच्छा प्रबल कर देते है, परन्तु ऐसे सुहावने मौसम में भी कृपण को सुरा के सेवन का नाम भी नही सुहाता है॥4

कवि बांकीदास कहते हैं कि– मृत्यु को प्राप्त हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति हो नहीं सकती है। भय के बिना प्रीती की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, अमृत के सेवन बिना अमरत्व कभी प्राप्त हो ही नहीं सकता है, उसी प्रकार बिना दान-पुण्य के कभी कीर्ति का प्रचार संभव नहीं है॥5

कृपण व्यक्ति विष्णु प्रिया लक्ष्मी जी से यही प्रार्थना करता है कि हे महादेवी! मैं तो आपके द्वार से कभी भी दूर नहीं जाऊँगा क्योंकि जिस दिन इस असार संसार को छोड़ना पड़ेगा, उस दिन केवल आपकी कृपा ही मेरे लिए तो सच्ची सहायक सिद्ध होगी॥6

कवि की जिव्हा रूपी कृपाण(तलवार) से होने वाला घाव कभी भी दुरस्त नहीं होता हैं। अतः दानवीर तो कभी भी अपने मन में कवियों को नाराज करने का विचार ला ही नहीं सकता है, परन्तु पाषाण-ह्रदय कृपण व्यक्ति को तो सुकवि द्वारा की जा सकने वाली संभावित अपकीर्ति का तनिक भी भय नहीं होता हैं॥7

कवि बांकीदास कहते हैं कि प्रकृति ने जिसे कान नामक श्रवणेन्द्रि प्रदान ही नहीं की है वह ‘नाग’(सर्प) तो सपेरे की वीणा की मधुर स्वर-लहरी पर प्रसन्न होकर झूम उठता है, परन्तु कृपण व्यक्ति तो कान होते हुए भी कभी ज्ञान की बात(सन्मार्ग में धन करने की बात) सुनने को आवश्यक अनुभव नहीं करता हैं॥8

कवि बांकीदास कहते है कि- मुसलमान लोग मृतक के शरीर को,लोभी व्यक्ति धन को तथा चींटी अन्न के कण को धरती में गड्डा खोदकर, उसमें रखने को ही अपना परम कल्याणकारी धर्म समझते हैं॥9

कवि बांकीदास कहते है कि ‘चमड़ी जाए पर दमड़ी नहीं जाए’ वाली कहावत चरितार्थ करने वाला कंजूस व्यक्ति झूले में बैठकर झूलने का आनंद इसलिए नहीं उठा सकता क्योंकि वह झूले के किराये के पैसे खर्च करना ही नहीं चाहता है। कंजूस व्यक्ति तो पेड़ की झुकी हुई टहनी को पकड़ कर उसके सहारे अपना झुलने का शौक पूरा कर लेता है, चाहे इस प्रकार की कृपणता में उसके प्राण भले ही चले जाएँ॥10

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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