मावड़िया अंग मोलिया, नाजुक अंग निराट।

गुपत रहे ऊमर गमै, खाय निज बळ खाट॥

बिना पोटळी बाणियो, बिन सींगां रो बैल।

कदियक आवै कोटड़ी, छिपतो छिपतो छैल॥

सुरताणां राणां तणी, नंह पूछी जे बात।

मावड़िया मालक जठै, पूजीजे नंह पात॥

प्रगटे वांम प्रवीण रो, नर निदाढ़ियो नांम।

नर मावड़िया नांम त्यूं, विना पयोधर वांम॥

पायो किण धनवंत पद, दामे डावड़ियांह।

कवियण किन पायो कुरब, मांगे मावड़ियांह॥

झूसर भार झल्लही, गोधां गावड़ियांह।

इम जस भार ऊपड़े, मोल्यां मावड़ियांह॥

नाव तिरे नह नीर में, निबळां नावड़ियांह।

राजस नह साबत रहे, मिनखां मावड़ियांह॥

गरबे फोड़े कुंभ गज, घण बळ घावड़ियांह।

पापड़ फोड़ पोमावही, मन में मावड़ियांह॥

ओछा कुळ में ऊपना, डोफा डावड़ियाह।

हवळे बोलै होट में, मूरख मावड़ियाह॥

घूघू ज्यूं घुसियो रहै, मावड़ियो घर मांह।

ऊठै बाहर आवही, तारां हंदी छांह॥

हेको काज व्है सकै, आवो संत असंत।

मावड़िया खिण खिण मता, नवा नवा निरमंत॥

अबलाओं के समूह में उत्साह का दंभ भरने वाला अकर्मण्य सर्वथा पुरुषार्थहीन ही सिद्ध होता है। वह कर्मवीरों से सर्वदा कतराता रहता है और एकांत प्रिय होता है। वह अपनी भुजाओं की कमाई से पेट भरना तो जानता ही नहीं है॥1

स्त्री-लोलुप मनुष्य तो बिना गठरी के फेरी लगाने वाला व्यापारी और विषाण रहित बैल की भाँति सर्वथा शोभा-विहीन ही दिखाई देता है। गुप्त रहने में ही गनीमत अनुभव करने वाला वह अबला अनुरागी तो सभा-भवन में उपस्थित होने का साहस भी भूले-भटके (कभी-कभी)ही जुटा पाता है॥2

इतिहास प्रसिद्ध सूरमाओं, उदात्त चरित्र एवं उदारमना शासकों एवं सामंतों की कीर्ति के प्रसंग तो स्त्रैण-चित्त लोगों को सुनाना ही व्यर्थ है। जहाँ का स्वामी स्वयं अबला अनुरागी है, वहाँ चारण कवियों को समुचित सम्मान मिलना संभव ही नहीं है॥3

जिस प्रकार ‘प्रवीण-सागर’ नामक प्रेमाख्यान की नायिका ‘प्रवीण’ को बिना दाढ़ी-मूँछ वाले पुरुष की संज्ञा प्रदान की गई है, उसी प्रकार स्त्रिलोलुप निर्वीर्य को बिना स्तन वाली नारी समझना ही उपयुक्त माना गया है॥4

कन्याओं को बेचकर आज तक कौन व्यक्ति धनाढय्य की पदवी धारण कर सका है अर्थात् कोई नहीं। उसी प्रकार स्त्री-धर्म-पालक व्यक्ति का यशोगान करके किस कवि ने उपयुक्त सम्मान प्राप्त किया है?॥5

जिस प्रकार गायों के संग रहने वाला सांड (बछड़ा) कभी भी जुए का भार अपने कंधे पर नही झेल सकता, उसी प्रकार अबलाओं के संग रहने वाला आदमी भी कीर्ति का भार अपने सिर पर कभी नहीं झेल पाता है॥6

जिस प्रकार पुरुषार्थहीन नाविक नौका को समुद्र पार नही लगा सकता, उसी प्रकार स्त्री-अनुरागी (विलासी) व्यक्ति कभी भी अपने वैभव को बचाकर नहीं रख पाता है॥7

शूरवीर तो रणभूमि में अपने बाहुबल से हाथी का मस्तक फोड़ कर गर्व करता है, परन्तु कायर व्यक्ति तो पापड़ तोड़ करके भी गर्व करने लग जाता है॥8

निम्न कुल में उत्पन्न व्यक्ति ढीले-ढीले हाल-चाल वाला होता है। वह बुद्धिहीन कायर तो बोलता भी इतना धीमे है कि शब्द होठों से बाहर भी आते प्रतीत नहीं होते है॥9

भीरु पुरुष उल्लू की भाँति घर में ही घुसा रहता है। वह रात्रि होने पर ही बाहर विचरण करने हेतु निकलता है॥10

कायर पुरुष भद्र अथवा अभद्र किसी का भी काम नही करता है। वह प्रतिपल अपना मन्तव्य बदलता रहता है॥11

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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