‘होयो ग्रीसम खतम, चाल चोमासो आयो।
ताप मुक्त हुय जगत, मांय मन मैं हरसायो॥
उट्ठ घटा घनघोर, छायगी लीलांबर पर।
नाचणा लाग्या मोर, ताणकै छतरी सुंदर॥
काढंती मन झाळ, बीजळी अंबर चमकी।
भरिया जोहड़ खाळ, घटा जद बरसी जमकी॥
झर-झर झरणा झरण, लग्या मीठी धुन गाता।
कळ—कळ करती बहण, लगी नदी दिन—रातां॥
धरती हुयी निहाल, हुया हरियल सब बोजा।
चल्या गांव रा ग्वाळ, बजावतड़ा अलगोजा॥
फळी कळी कचनार, बिरछ डाळ्यां बेलड़ली।
झूलण लागी नार डाळ, आम’र खेजड़ली॥
ठंडी चाली बाळ, गयी मन सबको हरखा।
आई बणकै काळ, बिरहंणी ताणी बरखा॥
सावण साजन संग, भलो लाग्यो सजनी नै।
करग्यो सावण तंग, बिना साजन रजनी में॥’