भोडल दीप दुरै पुन: पानन के खाये।

घास घुसेरी आगि छिपै नहिं सौंधा लाये॥

जल तर सीसी माहिं पानि पातर सु लखावै।

अमल छाना होइ निरखि जब नख सख आवै॥

अंत फटकरी उघड़ै जन रज्जब जल मह जथा।

तैसी बिधि मन माहिली बाहरि दीसै है तथा॥

स्रोत
  • पोथी : रज्जब बानी ,
  • सिरजक : रज्जब जी ,
  • संपादक : ब्रजलाल वर्मा ,
  • प्रकाशक : उपमा प्रकाशन, कानपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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