सतजुग सोह समरथ विसनों विसन जपंता।

पाप दोष दरसन मां दिष्ट रुघवेद उचरंता।

ग्रहण हुआ सहस पांच ता मां तीज वाट सूरज रा।

चावा अवतार चियारि अवर विसंन चिरत अनेरा।

मच्छ कच्छ वाराह नरस्यंघ भगतौ तारण भौं हरण।

माया भूलै सोई असुर करतार सबै कारज करण॥

सतयुग वह समर्थ युग है जिसमें सभी विष्णु-विष्णु जपते हैं। इस युग में पाप दोष दृष्टि में नहीं आते थे।

ऋग्वेद को सभी पढ़ते। इस युग में पांच शास्त्र ग्रहण हुए, जिनमें से तीन वाट सूर्य के थे। विष्णु के चार अवतार और भी अनेक चरित्र हुए। इस युग में मत्स्य, कच्छ, वाराह नरसिंह ये चार अवतार भक्तों को उतारने वाले असुरों को संहारने वाले हुए। जो माया में भ्रमित हो जाते हैं वे ही असुर है। कर्तार विष्णु सर्व कार्य करने में समर्थ है।

स्रोत
  • पोथी : ऊदोजी अड़ींग कृत ,
  • सिरजक : परमानंद बणियाल ,
  • संपादक : ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल ,
  • प्रकाशक : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, भोपाल ,
  • संस्करण : प्रथम
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