सरद के चन्द्रमा सौ राजत बदन-चंद,

छूटे केस-पास भारे लंक बिसतारे है।

कंचन के कुंभ जैसे उंनत उरोज अति,

भारे-भारे अंग गहि भायकै उतारे है।

चितवनि हसनि चलनि चातुरी सौं चारु,

अैसी उपमांनि निरधार बिचारे है।

मांन मद परवे गुमांन गति परवे सो,

तेरी गति गरवे गयंद लखि हारे हैं॥

स्रोत
  • पोथी : नेहतरंग ,
  • सिरजक : बुध्दसिंह हाड़ा ,
  • संपादक : श्रीरामप्रसाद दाधीच ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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