छप्पय वाल्हउ होइ, फूल केतकी सुगंधउ।

नारी वाल्हइ होइ, अवल आभरण निबंधउ॥

राजा वाल्हउ होइ, तुरी चंचल चालंतउ।

किरपण वाल्हउ होई, दाम हरखइ दीखंतउ॥

कामी नरां वाल्ही त्रिया, वाल्ही सिज्या ऊंघतां।

जिनहरष कहै सज्जन सुणउ, तिम दाता वाल्हण मंगतां॥1॥

लच्छि तिका सुकयत्थ, जिका पर-कज्जइ आवइ।

नारि तिका सुकयत्थ, जिका भरतार सुहावइ॥

पुत्र तिको सुकयत्थ, जिको जीवंतां पाळइ।

मित्र तिको सुकयत्थ, जिको नवि छेह दिखाळइ॥

पंडित तिको सुकयत्थ गिणि, पूछ्यांरउ उत्तर दियइ।

जिनहरष सुगुरु सुकयत्थ सो, जिकां सहु परि हित राखै हियइ॥2॥

जरा कियउ जाजरउ, पिंड परचंड हुतौ जो।

पग डग नस कै भरै, सीस धूजण लागउ सो॥

जीभ करइ लालरा, समझि पड़ै बोलंतां।

पड़इ लाळ मुख-थकी, दांत पड़िया देखंतां॥

आंखि री जोत माठी पड़ी, ऊठ-बइस थई परवसां।

जिनहरष बाल हांसी करइ, जरा बिगोया माणसां॥3॥

ढहइ महल-माळिया, कोट गढ पणि ढहि जायइ।

ढहइ देव देहरा, अनड़ गिरि पाधर थायइ॥

ढहइ गहन वन वृक्ष, ढहइ कीधी जे माया।

देव तणी नर तणी, ढहइ सोई सुन्दर काया॥

जिनहरष सुथिर जस कोटड़ौ, जउ लागइ दुसमण धका।

पिणि ढहइ नहीं जुग जावतां, ऊंडी जड़ घाती जिका॥4॥

स्रोत
  • पोथी : प्राचीन राजस्थानी काव्य ,
  • सिरजक : जिनहर्ष मुनि ‘जसराज’ ,
  • संपादक : मनोहर शर्मा ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
जुड़्योड़ा विसै