हंस गहै निज खीर बनी मधुरिख मधु काढ़ै।
अलि ज्यों परिमल लीन पुहुप पखुरी नहिं डाढ़ै॥
चंबक चुनि ले सार पुन: पारा ज्यों कंचन।
त्यों ततबेता तत लेहिं प्यंड पर हरि गुन पंचन॥
छाज नाज कन काढ़ि ले गऊ दूध ज्यों बच्छ मुख।
त्यों रज्जब गुन कौं गहत आपा पर उपजै सु सुख॥