एक समैं हरि राधिकासौं, समैं प्रात लसैं छबिता सरसी है।

एक सखी तहां सौतिकी आय, गुपांलसौं बोलकैं ‘रोस गसी है’।

अैसे प्रसंगनिकौं लखिकैं, मिलि सारी सकोचकौं देखी लसी है।

एक सखी लखि रीझि हसी, एक आखै हसी एक बोल हसी है॥

स्रोत
  • पोथी : नेहतरंग ,
  • सिरजक : बुध्दसिंह हाड़ा ,
  • संपादक : श्रीरामप्रसाद दाधीच ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ,
  • संस्करण : first
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