सियाळै री रातां

ओढूं सिरख

बिछाऊं पथरणों

गुद्दी हेठै सोरफ सारु

धरूं तकियो

ढाबूं पौ री ठारी!

आधी सी रात

कानां में पड़ै

पींजणैं री आवाज

'तुड़क-तुड़क तुड़ंग तूं..!'

अचाणचक खुलै आंख

साम्हीं पण कीं नीं

म्हैं सुरख-पथरणैं

तकियै री रूई सम्भाळूं-

हाल ठीक ठाक है!

आंख मीचूं

पाछी नींद उतरै

नींद में आवै

हेला उपाड़तो

कमरद्दीन पिंजारो-

'रूई पिंजाल्यो!

रूई पिंजाल्यो!!'

म्हैं उठ’र बैठूं

यादां में फिरै पिंजरो

गळ्यां सूं कद होग्यो

साव अदीठ

सोचूं...

कांई होयो होसी

कमरद्दीन रो?

उण री टाबरी रो?

कळां पछै

म्हारै तो सोरफ है

कंवळा भरै कळां

सिरख-पथरणां-तकिया

बठै कियां

भरीजतो होसी पेट!

स्रोत
  • पोथी : भोत अंधारो है ,
  • सिरजक : ओम पुरोहित ‘कागद’ ,
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन ,
  • संस्करण : प्रथम