घणै पहल्याँ
ईं धरती पै
एक सहर का खूण्या साक मै
लाग रियो छो
बन को बन थापाथूर को।
अस्यो ठसवाँ
कै बीचा की गेली सू जाबो
छो भाटा को पचाबो।
घणी चौकसी सूँ कढ़बा पै भी
काँटो लाग ही ज्या छो
पगथली मै,
अर
खत ज्या छो सारो को सारो पग।
अस्याँ
दींव चाट्यो कागद होवे जस्याँ
आखर
उगटाणो ही पड़्यो
ऊ,
थापाथूर को बन।
पण
धरती नै
मल्यो ई छो
आराम,
मनख्याँ ई
आयो ई छो साँस
के फेरू लागबा लागगी
थापाथूर॥
पहल्याँ तो छी
एक ई खूण्या मै
पण
अब तो रोप रिया छै खेत-खेत पै
नूवा करसा-बाड़
थापाथूर की
सरस्यूँ को मुळकबो
गऊँ अर जौ की दंग्याँ को नाच
साँटा को मठ्यास
भड्डा की हाँसी
होती जा री छै
अलोप॥
बस दीखै छै
थापाथूर ई थापाथूर
जी सूं पग तो पग
खततो जारियो छै
मनख को
डील अर मन भी
अर कहकहाटा लगाती
फैलती ही जावै छै
पग गाळी
तन गाळी
मन गाळी
थापाथूर
सारी धरा पै।