टाबरपणै में
सोय जावतो मा रै खोळां...
खेलण नैं बाफर ही
फगत अेक खटोलड़ी।
पीसां रो अरथ हो-
फगत फांक संतरै वाळी।
नान्हो-सो हो डील
फगत इतरो कै
लुक जावतो माटली लारै।
हरेक सिंझ्या
लावती म्हारै सारू
धूड़ रो फूल
जिण नै निरख-निरख
बजावतो ताळी!
रेवड़ रो टोळो,
गाय-बाछड़ियां रै मेळ रो
निरवाळो सुर
भावतो हो म्हनै...
भावती ही वा उडती खंख
जिण री सौरम
म्हारै मन में बसी है अजै तांई।
बाळपणो मनभावणो म्हारो
जिण में कदै लड़्या,
कदै मिल्या,
मुळक्या अर खिल्या।
कदैई नी चिणी म्हे भींत
मन रै आंगणियै,
नी जाणी थारी-म्हारी,
जाणता हा
आखै बास री रोट्यां रो सुवाद..!
आज नीं लुक सकूं
म्हारै कूडै बडापणै सूं
सोचूं
आछो होवै है टाबर होवणो
पण कित्तो दोरो है आज
टाबर होवणो?