वै कैयो-

कांई मांडै रे मानखै सारू

च्यार ओळयां री कविता!

सिरज कोई सतसई

रच कोई रासो

बंधाव पछै सिरोपाव।

म्हैं कैयो—

आपरो हुकम सिर माथै

पण परनाळो तो अठै ईज पड़ैला।

क्यूंकै कविता नीं जी सकैला

सिरोपाव साथै।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : शंकरसिंह राजपुरोहित ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी संस्कृति पीठ, राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति