दरजी,

म्हारै नाप मुजब

कोट सींवैला

टोपी बणावैला,

तय तो आइज हो।

मोची,

पगां री डील मुजब

जूती सींवैला

पगरखी बणावैला,

तय तो आइज हो!

पण, कांई!

पैलां सूं ढेर सारा सीव्योड़ा

कोट, टोप्यां अर जूत्यां

म्हारै हाथ में घर

थूं बेसरमी सूँ

म्हनै कांई केवै-

जे कोट चावै तो

इण रै घेरै रो डील बणा,

जे टोपी चईजै तो

इण रै आकार में

माथौ छांग,

अर जे जूती पैरणी हुवै तो

जूती मुजब पगां नैं

छोटा का मोटा कर!

यत तो आइज ही-

सुथार

मूंहडा देख चौखट घड़ैला,

मोदी

पेट मुजब रासण देवैला,

क्यूँ अेक चौखट?

क्यूं है अेक जितो रासण?

थारो अेक जबाब है-

तय तो घणी बातां हुई ही,

पण कद तय हो के

सगळी बातां पूरी हुवैला!

स्रोत
  • पोथी : राजस्थळी – राजस्थानी मांय लोक चेतना री साहित्यिक पत्रिका ,
  • सिरजक : पुरूषोतम छंगाणी ,
  • संपादक : श्याम महर्षि
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