काल तांई जिको

उफणतो हो

थारै-म्हारै बिचाळै

अेक महासागर

आज

उण माथै जमगी है

बरफ री

अेक मोटी चादर

दूर-दूर तांई

अेक अणटूटतो सरणाटो

अणभोग्यो सूनोपण

अणसैयो अणजाणपणो

कांई हुवै

जे कदी-कदास

दम तोड़ती कोई माछली

सांस लेवण नै

इण जाडी पड़त नैं तोड़’र

मूंडो बारै काढ लै तो?

पण दूजै पल

बा

जानलेवी खामोसी

बा

दमघोटू-सूनवाड़

बा

मुड़दा चुप्पी

बा

जीवत घुटण।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : पुनीत कुमार रंगा ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य-संस्कृति पीठ
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