हां, सांची क्है छै तू

कोइनै वां की नांई

सलकणी अर चीकणीचट्ट

म्हारी कविता।

होती बी कस्यां

पळी पोसी

एसी बंगळा मं

जनमी बी तो

भटभोड़ जमीं पै

काची भींत्यां

अर खोलकरिया

झूंपड़ा मांय

बात अतरीक बी कोइनै

काचा टीमला मं सूं बी

फूट खडै छै परगास

जोत झलाबा हाळा

सरधालु अर जातरी

होम रैया होवै घी

पीपान सूं

कांधा फटकारबा मं

कोई कसर न्हं

छोडता होवै तो

पण अठी

ईं कलम कै सामै तो

बळता पळीता

फटकारता पूंचा

हमीसा हमीस

कूंहण्यां का टसड़का

ठोचक्या अणगणती का

ठोकर पै ठोकर

कम कोइनै छा

पांव का पेच बी

भड़ छी कठी?

होती तो रावा

कांई का छा?

जे तू जनमतो

म्हारी ठाम

तोल पड़ती थंई

कै कस्यां फूटै छै

धांस बीज मं

कस्यां उगै छै

रूंखड़ो डूंगर उपरियास

भटभोड़ जमीं पै

कस्यां पग लै छै

कविता!

स्रोत
  • पोथी : नेगचार पत्रिका ,
  • सिरजक : सी एल सांखला ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • संस्करण : अंक-17
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