प्रकृति री
राथा-पोथी सँभाळतो
वन-वन री
संस्क्रति रा
नित जस गावतो
छेकड़
म्हैं बणूं बळीतै रो जोग।
पण म्हने क्यूं काटै है लोग?
म्हारै असवाड़ै-पसवाड़ै
फेळ बुई नै सिणिया,
आकड़ा नै खींपड़ा
ऊभा है
रेत री रंगत राखण नै!
थांनै सोगन है
मुरझाया मती,
थांरै मुरझायां पछै,
कुण राखसी म्हारी सोग ?
पण म्हनै क्यूं वाढे है लोग?
पतझड़ री छिंया पड़तां,
म्हारी रेसम जैड़ी फोगेसी
धोळी बैकळू माथै झड़ जावै।
म्हैं मरुधर री मवेसी रो
खुराकी हूं..!