प्रकृति री

राथा-पोथी सँभाळतो

वन-वन री

संस्क्रति रा

नित जस गावतो

छेकड़

म्हैं बणूं बळीतै रो जोग।

पण म्हने क्यूं काटै है लोग?

म्हारै असवाड़ै-पसवाड़ै

फेळ बुई नै सिणिया,

आकड़ा नै खींपड़ा

ऊभा है

रेत री रंगत राखण नै!

थांनै सोगन है

मुरझाया मती,

थांरै मुरझायां पछै,

कुण राखसी म्हारी सोग ?

पण म्हनै क्यूं वाढे है लोग?

पतझड़ री छिंया पड़तां,

म्हारी रेसम जैड़ी फोगेसी

धोळी बैकळू माथै झड़ जावै।

म्हैं मरुधर री मवेसी रो

खुराकी हूं..!

स्रोत
  • पोथी : कवि रै हाथां चुनियोड़ी ,
  • सिरजक : संग्राम सिंह सोढ़ा
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