माथै ऊपर

मोरपांख तो

म्हैं बांध सकू

आज री आज

पण कृष्ण!

कोनी ही थारै कंनै

अर्जुन आळी आंख।

वा आंख

जकी जीती द्रौपदी

बांट दी ही जिण नैं

पांचूं भायां बिचाळे

मां रौ

आंख-अदीठौ उथळौ।

गिरधारी!

गरूर तो जरूर व्हैला

थंनै

सोळे हजार गोप्यां रै

हेत रौ

मोहन! मानूं,

सम्मोहन तो हो

थारी आंख में

पण कोनी पाय सकी

परमारथी परस

सजोया सदां

सुवारथी सुपना

स्यात

इणी सारू

बणणौ पड़ियौ व्हैला

अर्जुन आळे

रथ रौ सारथी।

त्रिपुरारी !

मुरारी !

बनवारी !

नीं जाणूं

कितरा-कितरा नांवधारी

व्हैला थूं

हजार आंख्यां रौ

सुपनौ

पण

म्हैं देखी है

थारै मोर-मुगट री

पांख ऊपर मंडियोड़ी

अेक आंख।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : शंकरसिंह राजपुरोहित ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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