नदी की ओर
अपने क़ो लटकाए
किनारे से चिपका हुआ है
करील।
हर साल नदी उफनती है,
पानी खींचता है करील की देह।
नदी का उफान उतरने पर
करील के क़ो
दुगुने होकर लटक जातै हैं
किनारे पर।
बल
करील में नहीं है
जमीन में है।
किनारे की मिट्टी की
पकड़ ढीळी हो जाए
तो बह जाए करील।
करील का हरा-भरा मन
खुद पर मुदित है
मिट्टी की पकड़ की बात नहीं सोचता।
जिस दिन अपनी जन्मभूमि से छूट जाएंगे
मऩुयों के करील सरीखे शरीर,
नदी की एक लहर
किसी नाले में ले जाकर भर देगी।
वो से ऐसे ही भरता आ रहा है
नदी का पानी
करील के पेड़ों को नालों में।
अब उनमें से किसी का भी
नहीं बचा कोई
नामो-निशान।