कुरजां रौ आभै मायं कुरळाटौ।

असाड़ रौ पैलड़ौ बादळ।

भटकती फिरती गळियां मायं

बूढी पगथळियां।

तीर ज्यूं ऊतरै सगळी अंतस मायं।

ओळूं रा खुल जावै आंगणां।

चुग चुग ‘आखर’ बांचती ही नजरां ओळूं नै।

कागदां री ओळ्यां रै ठीक अध-बिचाळै-

‘ऊग आवता डाबरिया नैण

डबडब भरियोड़ा।’

सदियां री थळकणां लांघती —ओळूं।

पगथळियां पतियारती —ओळूं।

घर–आंगणा सूं बाथां भरती— ओळूं।

चुग चुग आखर बांचती —ओळूं।

धोरै धोरै कुदड़का भरती

सेवण घास ज्यूं काळ बरस मायं

पांगर जावती

पांणी री पैलड़ी झड़ी ओळूं।

आज आवै आभै मायं कुरजां

आसाड़ रौ पैलड़ौ बादळ

आज भटकै गळियां मायं

बूढी पगथळियां।

पछै क्यूं नीं पांगरै ओळूं?

सेवण री दाईं पैलड़ी झड़ी सूं।

काईं, आठ पौर हाथां मायं बाजतौ

खुणखुणियौ

खा जावैला कुरज रौ कुरळाटौ?

आखंरा बीचला आंगणां?

स्रोत
  • सिरजक : आईदान सिंह भाटी