धूप-छांव री लुका छिप

भोर-सांझ री हलचल

रथ भान रो भाज्यो जावै

मानखो बीत्यो जावै

रोक सकां कद ईं पळ नै

कुदरत री ईं कळ कळ नै

पसीनै में बळ घुळतो जावै

मानखो बीत्यो जावै

नवो घड़ां बणै पुराणो

कदे समो कदे काळ कुराणो

आंधी में बादळ रुळतो जावै

मानखो बीत्यो जावै

डेरूं बाजै बाजण द्यो

बळै भींटका बालणद्यो

भागी खांतो पींतो जावै

मानखो बीत्यो जावै।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत फरवरी-मार्च ,
  • सिरजक : मुखराम माकड़ ‘माहिर’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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