लेवड़ा उतरती भींत माथै

लटकायौ जद नुंवौ कलेंडर

छाती सांम्ही आय’र ऊभग्या

तीन सौ पैंसठ दिन

म्हारी

नित छुलती सांस जांणै

कियां कटै

अेक-अेक दिन

लारलै बरस

ना होळी-दियाळी लापसी

ना सावण में सातू

रुतां बदळी

अर म्हैं भुगत्या फळ

मुट्ठी भर लोगां री

रुतां बदळी

अर म्हैं भुगत्या फळ

मुट्ठी भर लोगां री

फाक्यां में आयोड़ो

हरामी रौ हाड हरख

कदै नीं ऊभ्यौ आय’र म्हारै आंगणै

आज सूं भळै

म्हैं हूं

अर सांम्ही है

अै तीन सौ पैंसठ दिन।

स्रोत
  • पोथी : जातरा अर पड़ाव ,
  • सिरजक : सांवर दइया ,
  • संपादक : नंद भारद्वाज ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम