केई बार

जद आप म्हारै दोळा व्हिया,

म्हैं

म्हारी मुट्ठी आभै साम्हीं ताण,

आप साम्ही ऊभो व्हियो,

श्रीमान!

म्हारी कोसिस

आपनै हरावण कै डरावण सारू नीं ही

तो ही फकत, कीं बचावण सारू,

क्यूंकै—

इण मुट्ठी में तो बंद है,

म्हारा मुट्ठी भर सुपना।

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : गौतम अरोड़ा ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham
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