म्हैं आपरै ढंग सूं-

समाज नै

राज नै

आज नै

काल नै

आवतै-जावतै

बगत नै जोड़ूं।

हर भांत रै

जीवण स्तर नै वधावूं,

बीं री भावनावां नै

अभिव्यक्त करूं,

म्हैं थारी

अंतस री वाणी नै सामै धरूं...

पण

म्हैं आपरै सामूहिक व्यक्तित्व सूं

अळगी कदै नीं व्है सकूं!

म्हैं कई तरै री वाजूं

अेक तो वाणी

दूजी सांकेतिक

अर तीजी मन मोवणी भासा

जिकी अंतस रै उनमान ऊपजै

म्हैं थारै आतमा री भासा हूं...

आतमा री जिकी भासा हूं,

वा मायड़ री भासा कहावूं!

राजनैतिक मान्यता दो नीं दो

पण म्हैं हाल तांई जीती जागती हूं!

म्हैं तो जन-जन री अभिलाषा हूं,

क्यूं कै म्हैं घणी सिमरध भासा हूं।

स्रोत
  • पोथी : कवि रै हाथां चुनियोड़ी ,
  • सिरजक : संग्राम सिंह सोढ़ा
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