भोराभोर सुरजी

चुपचपातो आय'र

फळसै

मे'ल देवै

म्हारै पांती रो दिनI

म्हूं

चौड़ो होय'र

चक ल्याऊं

उण दिन नै

बारणै पड़्यै

अखबार दांई!

आठूं पौर

अठै सूं बठै डबकतो

उणनै कौर-कौर

तोड़-तोड़'र

गाळ देवूं,

बाळ देवूं

भरोसै री भट्टी मांयI

बरसां सूं

म्हे दोनूं

नेम रा पक्का

कदै नीं चूक्या

मे'लणो अर चकणो

म्हारै पांती रो दिन!

म्हूं जाणूं!

आखतो हुयोड़ो सूरज

चाणचकै

किसै दिन

पक्कायत तोड़ देवैला

आपरो नेमI

खाली हाथां

लटक्योड़ै मूंडै

म्हां नै आवणो पड़सी

बारणै सूं

चुपचपातो

अखबार मांय!

पण तोई

सुरजी भायलै रै भरोसै

बेफिकरी मांय

म्हूं मारूं पदड़का

बिना उण दिन नै

चेतै राख्यां...

काळजो तो देखो

म्हारो!

स्रोत
  • सिरजक : हरिमोहन सारस्वत 'रूंख' ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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