म्हारो भायलो

पग-पग छेड़ै पैंतरा बदळ

भेळो कर लियो मोकळो धन।

धन सूं फेलै

गरीब रै खून री गंध

पण

सुगन्ध रो अैसास नीं हो सकै।

मन री आंख सूं दिसै

म्हारै भायलै रो धन-गरीब रो खून।

म्हारो भायलो

मोकळै धन सूं बणग्यो ठगोरो

गरीब रो पसेव

बणग्यो म्हारै भायलै रो धन

अबै वो भायलो नीं सेठ है

अर लखावै समाज रो सब सूं बड़ो दानी।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : रतन ‘राहगीर’ ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति
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