म्हारा सरताज़, सजाओ नूआ नूआ साज—

म्हारी प्रीत बावळी।

मास्टर साहब पूछ रिया थे पढबा क्यूं नी आवो,

ज्ञान बिना सूनी रे काया हिवड़े नै भरमाओं,

पाटी थारी, बरतो थारो, सिवरे सिगळा काज—

म्हारी प्रीत बावळी।

दो आखर जे सीखोला तो, भलो जमारो थारो,

नी ठगीजोला चोरा स्यूं, बुद्धि रो बारो,

पोथी थारी, आखर थारा लेवो हिरदो मांज,

म्हारी प्रीत बावळी।

गांवो में के, शहरां में के, सिगळी बातां जाणो,

उठो भंवरजी! ज्ञानी होय'र, आपै नै पहिचाणो,

थे ऊंचा जे होवो, ऊंचो होवेला समाज़—

म्हारी प्रीत बावळी।

समझ—बूझ थाने आवेली, कारज सिगळा सरसी,

नुई—नुई हिक़मत उपजेली, दुखड़ौ सौन बिखरसी,

अे दो आंख्यां, चार हुवैली, जागो म्हारा राज—

म्हारी प्रीत बावळी।

म्हारा सरताज, सजाओ नुआ-नुआ साज—

म्हारी प्रीत बावळी।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत अक्टूबर 1981 ,
  • सिरजक : बुलाकीदास बावरा ,
  • संपादक : चन्द्रदान कम्पलीट ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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