नीं जाणै क्यूं
आज लखावै ओ जग
म्हनै छोड़’र अेकलो
सूयग्यो हुवै
गैरी नींद में।
होळै-होळै चालती पून
म्हारै काणै मन में लखावै
जाणै उजाड़ जंगळ में
किणी मिंदर री फुरकती हुवै-
धजा!
राजकंवरी रो नौलखो
झपटो मार’र लेयगी चिलख
चिलख जिकी थोड़ी’क ताळ पैली
फुरूकै री जंगळ मांय
किणी री धजा दांई
राजकुंवरी री आंख्यां मांय
उपज्यो मून
चाणचकै खिंडगी क्हूंक
अेक-अेक कर’र झड़ग्यो
सगळो जंगळ
अर बणग्यो मरुथळ।
सूनयाड़ अर मौत बिचाळै
कित्तो’क आंतरो
छटपटीजूं अेकलो बण’र
म्हैं रेत रो पंखेरू।