तड़का की बेरां

झट उठ जावे

झाडू बुआरी कर ले,

प्रभु को नाम जपले

गाय गोबर नपटादे,

दूध खाड़ले

अर महका दे,

चुल्हा-चौका ईं

मीठी चाय की ख्शबू सूं।

साग भाजी

खाटा राबड़ी मं

घोल दे हिवड़ा रो प्रेम

हाथां रो जादू

वे अन्नपूर्णा झट बण जावे गरू

टाबरां नै बता दे गेलो

शिक्षा मन्दर को

खुद चाळ पड़े

ठोबल्या मं दांतली -कुदा ळया ले'र

खेतां का रास्तां प'

पोस की सीत हो

जेठ की तपन

या भादौ का मेघ

वाईं तो जुतणों ईं छै

निंदाई,गुड़ाई,कटाई मं,

पाछी जांती वेर

ले जाणी छै

चुल्हा के लेखै मोळ्यां

ढांडा चारो

र् घरकां साग भाजी

यां सब कामां साथ

निभाणा छै

पीर-सासरा

रिस्ता-नाता

बहन-बेटियाँ

वे जाणे छै

जीवण का आखा रिस्ता

वांसूं ईं छै

घर ईं घर बनाती

रूप सजाती संज्योती

बरतन चमकाती

रसोयाँ मं स्वाद भरती

लुगायाँ

पढ़ी हो या अनपढ़

गृहणी हो या नोकरी पेसा

काम बदले छै

नियति

बदले।

लुगायाँ कुण गाई।

स्रोत
  • सिरजक : प्रीतिमा ‘पुलक’ ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी