काल अठै सांझ नै

बिजळी रै पळपळाटै सूं

महफिळ दमकै ही

चून्दड़ चमकै ही

मूंछयां मुळकै ही,

अचाण-चक

आज कांई हूग्या,

सैंग जणां

कीसा'क-माडा

डांगां सूं जरकायोड़ा ज्यूं

डोभा फाड़तां

बीड़ रेड़ा-सा निजरां आवै।

पड़ोसी पड़ूतर दियो-

काल अठै समधी

गाजै बाजै सूं ढुक्यो

लाडेसर सूं लाड कंवर परणा रै

दायजै में सगळो

मालमतो ले भाग छुटयो।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत जून 1987 ,
  • सिरजक : हनुमान दीक्षित ,
  • संपादक : चन्द्रदान चारण ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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