बिजळी रै तार पर
झूमती-झूलती
लीलटांस देखी म्हैं
वासन्ती बयार लहरकां
भोरा न भोर
म्हारै कवि-मानस नै
झकझोरती पंथी-राग
टेरती जाणै पंख संवारती बोली—
सुण रे कविता रा लाडेसर।
म्हां वन-जीवां री
काया कळपावै
आ मिनख जात
इतरा दंद-फंद क्यूं पाळै?
देख सोच भलमाणस कवि
म्हारा चिणवायोड़ा किसा बता
अै म्हेल-माळिया, कोट-किला अै।
अै घर, गांवाई झूंपा अर टपर्या।
रह जाय धरयोड़ी आ सारी माया
आ तौ ठा है सकळ मानखै नै
म्हारा कोई देव धाम नीं
नीं धोकां पीर-पगारां नै म्हे
चिलम-चरस गुड़गुड़ता हुक्का में मस्त-मस्त
आं मंडलेसर मोडां री जमात नै
म्हे ना ग्रंथी, गिरजाघर-धंधी...
म्हां पंछिया नै आपघात करतां
अंडबंड पागलपण में बकतां
म्हांनै देख्या है तौ बोलौ
ओखदखाना में ओय-हाय
म्हे कदी करां कांई?
म्हे जे काया-कस्टी होवां तौ
आं करुणा पूरी वन दाय ऊगती
जड़ी-बूंटियां सूं उपचार साधलां
म्हे साव सुतंतर विचरां
नीं सम्प्रदायी म्हे दंगाई
वादी कुण प्रतिवादी अर प्रमादी
म्हांरी कोई कोट-कचैरी कोनी
समुदायां में रैवां समरस जीवां
पण संघ-संगठण नीं थरप्या म्हे
ना कोई संसद ना सचिवालय
अै राजनीति रा सैंग चौळका
मिनखां! थांरी आ लीला भूंडी घणी लखावै म्हांनै
सत्तायी चुणाव री फगड़ाबाजी
म्हे जनमजात दिगंबर मस्त कलंदर
नीं भिखारी ना म्हे मंगता
म्हारौ गायण रूखां रै बेडूखां गूंजै
म्हे अ-निवासी नित्त प्रवासी
रंग, नसल अर जात-पांत री
घेरैबंदी में कदी नीं रैवां
भासा, साहित, कला-संस्कृति री
म्हांरी ई है रागां, निरत री-
परिपाटी संस्थाबाजी सूं मुगत
रितुकाळ नेम सारता
काम-रमत में रमां चितमन सूं
युकताहार, विहार, युकत चेस्टावां म्हांरी
कर्मगति जुगतबंद होवै सो सोवै
म्हे निरमोही हां पण क्रूर कोनी
जित संग दोस सूं परबारा
म्हे जो औ संवाद साधियौ
आ साव उगत है
पीड़ा अर प्रसन्नता पूठी
जाणूं हूं चोखी तरियां-
आ मिनखां री माया इज कोनी
म्हां वनवास्यां री ई है
पण कांई हुवै है ब्रह्म?
आज तलक कद कुण जाणै?
हां, थे-म्हे जाणां
महामशीनी टक्कर झेलंतौ
‘गॉड पार्टिकल’ सोधां
म्हारौ सैंग कडूंमौ
परा-अंतरिख सूं निजर मिलातौ
थाकैला नीं
थूं कर्या करै कविता, कवि म्हारा
कान खोलनै बात मरम री सुणजै
औ अणंत विस्तारौ।
सार्वभोम इतिहास
भूख रौ सारौ।