काळास मै लपटी,

घूंधळका का डूंगर तळे दबी

सहर की घुटी-घुटी

चीखाँ

उधार लिया उजास सूं

काँच का टुकड़ाँ की नाई

सवाँ नै चकराता

चूंध्याता

धोळा-घोळा

साँप का सा भळका।

बिसेला॥

मै वन में फूल्या ढाकाँ नै देख

नैणाँ मै बसाया

फागणी सपना।

ऊँदाळा मै

डूंगर की केसरियाँ धूप मै

मगन होवा की

भोळा-भोळी भूख।

दूराँ ताईं मरू पै फैली

झळमळाती हरियाळी को

भरम।

धरा की गोळाई मै

भागतो मोठ्यार

कहाँ रूकैगो?

जमारो

कठी जा'र ठहरैगो?

कुण जाणै?

कुण जाणै...

घरों, गाँवा, नै छोड़'र

'और', 'और', को नसो

काँई कर न्हाकैगो?

माँडण्याँ मँड्यो

अधपाक्यो घड़ो

कद गळ ज्यागो

कुण जाणै?

कगार का गेला पै

चालता पाँव

केसर की क्यारी मै पूगैगा

कै

जा पड़ेगा-

अतळ गहरी खाई मै।

कुण जाणै..?

कुण बतावै..??

स्रोत
  • पोथी : थापा थूर ,
  • सिरजक : गौरीशंकर 'कमलेश' ,
  • प्रकाशक : ज्ञान-भारती प्रकाशन, कोटा