कुण रोपै छै बाग खजूरां का

कोई नकटो बण’र कांकड़ पै ऊभा रौ तो ऊभा रौ।

मूं जनम सुहागण नं

माथा की लट्यां सूं लोगां का दळद्दर बुहार्या

देही कटा’र घरां की म्याळ बण’र

सावण बादवा बहता

अर जेठ बैसाखां तपता कोलुआं को बोझ

ऊंदी लटकी लटकी नं झेल्यो

म्हारी कूंख का सतमास्या टाबर भी

जमाना नं तीखी दांतळ्यां सूं नाळवा काट काट’र

भुस मं गाड़ दिया

मूं गडगी, मूं गरगी नांव नांव दबगी

जद जार म्हारो माथौ ऊंचो छै

यूंई बडी नं होगी।

स्रोत
  • पोथी : जातरा अर पड़ाव ,
  • सिरजक : अम्बिका दत्त ,
  • संपादक : नंद भारद्वाज ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम