आ!...आ, हाग नो हवाद हूँ जाणे!

हे कोण...खांकरा नी खली स् ते

वात तमारी खरी

म्हूं खांकरा नी खली

केउड़ं मारं रवास

म्हूं हूँ लेवा करूं हागं नी आस?

पण, तमै, मारा भाई

कै ग्यो तमारो विसवास?

कैम भूलो... कै.....

झकाझक करती तमारै घोरं नी भेंतं नै कुसियै,

कराइयं ने टाटिये, के रिंय नो पास घालवा पानं

ने

पंचं ने पक वन पीरवा पतरांड़

खांकरो स् आलै।

आणंस खांकरं तरे बई नै

बे घड़ी थाकेलौ गारौ

जेट ना तपता बपोर में।

पण, आदमी हो नै —मोटी जात

नुगरा थई जो ते कोण पूसे

केवत है

मोटं नी हेंद औंसी स् असल

एटले

तमारी हाग तमारे रई

मने ते मारो खांकरो

ने केउड़ं भलं।

स्रोत
  • पोथी : वागड़ अंचल री राजस्थानी कवितावां ,
  • सिरजक : घनश्याम प्यासा ,
  • संपादक : ज्योतिपुंज ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादनी बीकानेर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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