उठ झांझरकै जद मां झरमर चाकी झोवती,

बी झरमर री लोरी ऊपरां

म्हानैं नींद भलेरी आवती।

कठै गया वै झरमर बोलणा?

अर कठै गया वै चाकी पीसणा!?

घाल बिलोवणो जद मां झगड़-मगड़ बिलोवती,

वा झगड़-भगड़ री बोली

म्हारै हिवडै घी-सो घालती।

कठै गया वै झगड़-मगड़ बोलणा?

अर कठै गया वै बिलोवणा, बिलोवणी?

बैठ रसोवड़ा मांय जद मां ढब-ढब खाटो औळती,

वा ढब-ढब री बोली म्हारै कानां मिसरी घोळती।

कठै गया वै ढब-ढब बोलणा?

अर कठै गया वै खाटा ओलणा?

सांझ पड़यां जद मां पट-पट सोगरा बणावती

वा पट-पट री वाणी म्हानै घणी चोखी लागती

कठै गया वै पट-पट बोलणा?

अर कठै गया वै बाजरी रा सोगरा?

कठै गया वै बोलणा?

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : महेन्द्र मील ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham
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