नदियाँ कै सागै बहैर आयी

कनारा पै जमी गार

म्हाँ मिनखां की केई सभ्यता

आपणा भीतर दबाया छै

कदी कान लगा’र सुणो

गार रोवै छै

सूं बणी पूरी कै पूरी बस्तियाँ

बखरगी का घणा भीतर

कै उपरै लहराती फसळां

अब हेर्’या बी मलै

म्हाँ मिनखां को काई छै

म्हाँ तो हेर लै छां संदी चीजां को

काई काई विकल्प

पण गार जाणै छै कंकरीट सूं दब’र

आपणी पहचाण मटबा को दुःख

पक्का घाट बनाबा वाळा

काची गार का कनारा नै

अब दळदळ तो मानै छै।

स्रोत
  • सिरजक : किशन ‘प्रणय’ ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी