पाणी री छोळ

अेक तट सूं बीजै तट तांई

पूगती-पूगती अदीठ हुय जावै

पण,

सत्ता री कूंत नीं है सो'री!

जळ री लै'रां

लेवै जद करवट

तूट जावै तट-बंध

बिधूंस रै डर सूं

कांप जावै-पासाण हिड़दा!

पण, फिड़का बाज

छोळां रै हबोळां मांय

अस्तित्व सारू करै खेचळ...

जळ-मंथण

समेट लेवै भंवर बण’र

अलेखूं आसियाणा उजाड़ण पछै

जड़ता नै

फेरूं खुसामदी

घायल हिड़दां माथै

मिठबोलै मिजाज सूं

जळ-भंवर मांय बिछाय नै जाळ

ढूंढतो रैवै आपरो अस्तित्व!

जळधारावां

आपरै सैंस फणां साथै

बिकराळ बणनै फैल जावै-

जकड़ लेवै उणनै

डूब जावै इण भांत

फिड़काबाज नाव डुबोयां पछै

आपोआप! जुलमी जळ मांय!

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली पत्रिका ,
  • सिरजक : रतन ‘राहगीर’ ,
  • संपादक : श्याम महर्षि
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