कुम्हार का चाक प' जाणै, गीली गार,

दूजा का हाथों को मांगती आधार।

घूमै छै, घूमै छै बेथा'ल,

अस्यो ही छै-

जिन्दग्यानी को हाल।

मुरदा सींगी पोत- पोत'र,

गेस का उजाळा मै, चमकाता मूँडा।

भीतरी कळमळास नै भूल'र,

भावन्या मै बहता, रीता सा कुँडा।

खेलै छै ख्याल-

अस्यो ही छै, जिन्दग्यानी को हाल।

भोगै छै भोग मीठा अर खाटा,

पण कठैई नै दीखै केसरिया छाँटा।

और तो और नैणां का समंदर भी,

दीखता लागे छै, सूख्या सा ताळ।

अस्यो छै, जिन्दग्यानी को हाल।

भूख के लेखे उगावै छै, कागदां री फसलां,

अंधेरा में डूबे छै, नूई मानवी नसलाँ।

सूरज को उजाळो, कठै री गरेण की चाल,

अस्यो छै-

जिन्दग्यानी को हाल।।

स्रोत
  • पोथी : थापा थूर ,
  • सिरजक : गौरीशंकर 'कमलेश' ,
  • प्रकाशक : ज्ञान-भारती प्रकाशन, कोटा ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण