कुण कै

परळै रो समदर

आग

बुझा री;

राखां रै नीचै

अंगारा सुलगै है।

कुण कै

तापाँ रा झटका

सरित्

सुखा दी;

मरुधर रै नीचै

जळ-धारा उमगै है।

कुण कै

ईं तम रो अजगर

दीप

निगलग्यो;

खंडहर में निरभै

जीवण-जोत जलै है।

स्रोत
  • पोथी : मोती-मणिया ,
  • सिरजक : भँवरसिंह सहवाल ,
  • संपादक : कृष्ण बिहारी सहल ,
  • प्रकाशक : चिन्मय प्रकाशन