म्हैं घणा दिनां सूं

नीं लिखी कोई कविता

कविता लिखण बैठ्यौ

तौ लिख गयौ मैंगाई,

भ्रष्टाचार

राष्ट्रीय अर अन्तर्राष्ट्रीय समस्यावां

पण नीं लिख सक्यौ कविता।

थारी मूरत नाचती तौ रही

म्हारी आंख्यां सांम्ही

पण कागद माथै

उतारतां-उतारतां

अलोप व्हेगी

अर कागद माथै

उग आई भींतां

आंगणौ अर छांन

म्हैं बार-बार

सोधतौ रह्यौ वा बारी

जठै थूं मुळकती थकी

ऊभी रैवती ही

केई बरसां पैली।

पण बारी री ठौड़

धौळा पलस्तर टाळ

म्हनै कीं नीं दीख्यौ

कठै गई हुवैला थूं

कीकर हुवैला यां दिनां

म्हैं बार-बार पूछूं भींतां नै

पण भींतां तौ

कोई पड़ूतर नीं देवै

पडूतर देवणौ भींतां रौ

सुभाव नीं रह्यौ कदेई।

पण पड़ूतर बिना

धकलौ सवाल नीं सूझै म्हनै

इण तरै अेक सून्याड़

पसर्योड़ौ है इण बगत

म्हारै अर भींतां रै बीच

अर म्हनै लागै के इण सून्याड़ में

और तौ सै कीं व्हे सकै

पण नीं व्हे सकै प्रेम

अर

नीं लिखी जा सकै कविता।

स्रोत
  • पोथी : जातरा अर पड़ाव ,
  • सिरजक : भगवती लाल व्यास ,
  • संपादक : नंद भारद्वाज ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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