गंगाजी का तट पर-
टापरी में बैठ
भजन करता संत मलूक
मणक्यां की गणती कर
सवा लाख जप करता रोज
रोज सामने एक गूजरी
नई नकोर ऊजरी
दूध बेच'र आती
छोटा-बड़ा कळस्या अर
मरती ने गंगाजळ में झकोळती
साधु रोज देखता
एक दन बोल्या
बाई ! यां तीन बरतनां में
कांई तीन तरह को दूध लावे छै कई ?
गूजरी कह्यो
नां बाबाजी
दूध तो दो में ही लाऊं
मरती में तो पीसा मेलूं
बडा कळस्या में ग्राहकां क तांई
थोड़ो पाणी मलार बेचूं
फेर नीची नजर कर बोली
छोटा में म्हारा मंगेतर के वास्ते
निखालिस दूध ही दूध
एक छांटो भी पाणी को न पटकूं
बड़ा कलस्या का पीसा
यहां गणूं छु।
बाबाजी पूछ्यो
छोटी कळसी का पीसा कठ मेले छै ?
गूजरी कह्यो
ऊ दूध तो ऊने दूं छु।
जीने सारी जिन्दगी ही सूंपणी छै ...
ऊंसे कांईं हिसाब ?
ऊंसे कांईं पीसा लेणा ?
ऊ म्हारो कान्ह कंवर
अर म्हूं ऊं की राधा
ऊंसे तो बना मोल की ही बंधी छ।
हिसाब दुनिया सूं
मालिक सूं कस्यो हिसाब ?
संत की तो जस्यां अंतस की आंख्यां खुलगी
धन्न छै तू गूजरी
थने तो ज्ञान दे दयो री छोरी
म्हूं तो जप की गणना करूं
नाम जपूं
मालिक ने हिसाब जोड़र बताऊं
क सवा लाख पूरा होग्या छै।
जीको नाम जपूं
ऊंसे कस्यो हिसाब ?
या कह'र
संत ने माळा अर गोमखी
बहा दी गंगाजी में
हिसाब छोड बेहिसाब होग्या
संख्या से ऊपर उठ
शून्य में असंख्य होर
खोग्या महात्मा!