धूं आवै

जाणै

फटकारो दियो होवै

पुरवाई

पसर जावै

मनगत रै मांय-बारै

धूप री सौरम दांई।

म्हैं

उछलूं-कुदूं

कै भर लूं बांध

पण थूं छुईमुई

होय जावै अलोप

ज्यूं रख दी होवै

'कोटन-कैण्डी'

तिरसायी जीभ माथै...

थूं टुर-व्हीर होवै

रे गैलण

थारै

मनचींत मारग

म्हारी चेतना

साथै लेय!

क्यूंकै

थनै कर लियो

खुद सूं अेकाकार

अबै नीं रैया हां

दो

तो मुगत करणो पड़े

खुद नै खुद सूं

लोक-मरजाद रै बळ।

थारी प्रीत री रीत में

जीवन है रे कान्हा

म्हारो।

स्रोत
  • सिरजक : रवि पुरोहित ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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