घणो थाये हरख

च्यारै-मेरै हरख

आंबा थकी आव्यौ हरख

पीपळा थकी आव्यौ हरख

वड़ला थकी आव्यौ हरख

नै हरखाई गई आंगणा मअें उभी तुलसी।

क्यं अे होंदवौ न्हें प्ड़े हरख

आपड़े मयं’ज है हरखा

हरख’ज हरख!

घणा नी हरखाई म्हारा हरख मअें

मेंगू लाग हरखाब्बू अैणं ने बीजा ना हरख मअें!

लागे के पइसा लागें घणं ने हरखवा हारू

हुं कं, हरख।

स्रोत
  • पोथी : अपरंच ,
  • सिरजक : शैलेन्द्र उपाध्याय ,
  • संपादक : गौतम अरोड़ा ,
  • प्रकाशक : अपरंच प्रकाशन
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